राम जी लंका पर विजय प्राप्त करके आए तो कुछ दिन पश्चात राम जी ने विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और अंगद आदि को अयोध्या से विदा कर दिया। तो सब ने सोचा हनुमान जी को प्रभु बाद में विदा करेंगे, लेकिन राम जी ने हनुमान जी को विदा ही नहीं किया।
अब प्रजा में सुगबुगाहट होने लगी कि क्या बात है कि सब अतिथि चले गए परन्तु अयोध्या से हनुमान जी नहीं गये।
अब दरबार में कानाफूसी शुरू हुई कि हनुमान जी से कौन जाने के लिए कहे , तो सबसे पहले माता सीता जी की बारी आई कि आप ही बोलो कि हनुमान जी चले जायें।
माता सीता बोलीं- मै तो लंका में विकल पड़ी थी, मेरा तो एक-एक दिन एक-एक यूग के समान बीत रहा था। वो तो हनुमान जी थे, जो प्रभु की मुद्रिका ले के आए, और धीरज बंधवाया कि…!
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हनुमान को मैंने अपना पुत्र माना है, मैं तो अपने बेटे से बिल्कुल भी नहीं बोलूंगी अयोध्या छोड़कर जाने के लिए, आप किसी और से बुलावा लो।
अब बारी आई लक्ष्मण जी की। तो लक्ष्मण जी ने कहा, मै तो लंका के रणभूमि में वैसे ही मरणासन्न अवस्था में पड़ा था। पूरा राम दल विलाप कर रहा था।
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।
ये तो जो आप सब के सामने खड़ा है, वो हनुमान जी का लक्ष्मण है। मैं किस मुंह से कैसे बोलूं, कि हनुमान जी अयोध्या से चले जाएं।
अब बारी आयी भरत जी की। भरत जी तो इतना रोये, कि राम जी को अयोध्या से निकलवाने का कलंक तो वैसे ही मुझ पर लगा है। आप सब मिलके हनुमान जी का और लगवा दो।
और दूसरी बात ये कि…!
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।
अधम कवन जग मोहि समाना॥
मैंने तो नंदीग्राम में ही अपनी चिता लगा ली थी, वो तो हनुमान जी थे जिन्होंने आकर ये खबर दी कि…!
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत।
सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
मैं तो बिल्कुल न बोलूं हनुमान जी से अयोध्या छोड़कर चले जाओ, आप किसी और से बुलवा लो।
अब बचा कौन..? सिर्फ शत्रुघ्न भैया। जैसे ही सब ने उनकी तरफ देखा,
तो शत्रुघ्न भैया बोल पड़े.. मैंने तो पूरी रामायण में कहीं नहीं बोला, तो आज ही क्यों बुलवा रहे हो, और वो भी हनुमान जी को अयोध्या से जाने के लिए। जिन्होंने ने माता सीता, लखन भैया, भरत भैया सब के प्राणों को संकट से उबारा हो, किसी अच्छे काम के लिए कहते तो बोल भी देता। मै तो बिल्कुल भी नहीं बोलूँगा।
अब बचे तो मेरे राम सरकार…
माता सीता ने कहा प्रभु! आप तो तीनों लोकों के स्वामी हो, और देखती हूं आप हनुमान जी से सकुचाते हैं। और आप खुद भी कहते हो कि…!
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
आखिर आप के लिए क्या अदेय है प्रभु!
राम जी ने कहा, देवी मैं हनुमान जी का क़र्ज़दार जो हूं, , इसीलिए तो..
सनमुख होइ न सकत मन मोरा
देवी ! हनुमान जी का कर्ज़ा उतारना आसान नहीं है और इतना सामर्थ राम में नहीं है, जो “राम नाम” में है। क्योंकि कर्ज़ा उतारना भी तो बराबरी का ही पड़ेगा न…!
यदि सुनना चाहती हो तो सुनो – हनुमान जी का कर्ज़ा कैसे उतारा जा सकता है।
पहले हनुमान विवाह करें, लंकेश हरें इनकी जब नारी।
मुंदरी लै रघुनाथ चले, निज पौरुष लांघि अगम्य जे वारी।
आयि कहें, सुधि सोच हरें, तन से, मन से होई जाएं उपकारी।
तब रघुनाथ चुकायि सकें, ऐसी हनुमान की दिव्य उधारी।।
देवी ! इतना आसान नहीं है, हनुमान जी का कर्ज़ा चुकाना। मैंने ऐसे ही नहीं कहा था कि…!
“सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं”
मैंने बहुत सोच विचार कर कहा था। लेकिन यदि आप कहती हो तो कल सभा में हनुमान जी से बोलूंगा कि वो भी कुछ मांग लें।
दूसरे दिन राज्य सभा में सब एकत्र हुए, सब बड़े उत्सुक थे कि हनुमान जी क्या मांगेंगे, और राम जी क्या देंगे।
राघव जी ने कहा– हनुमान सब लोगों ने मेरी बहुत सहायता की और मैंने, सब को कोई न कोई पद दे दिया। विभीषण और सुग्रीव को क्रमशः लंका और किष्कन्धा का राजपद, अंगद को युवराज पद। तो तुम भी अपनी इच्छा बताओ…?
हनुमान जी बोले – प्रभु आप ने जितने नाम गिनाए, उन सब को एक एक पद मिला है, और आप कहते हो…!
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना
तो फिर यदि मैं दो पद मांगू तो..?
सब लोग सोचने लगे बात तो हनुमान जी भी ठीक ही कह रहे हैं।
राम जी ने कहा ! ठीक है, मांग लो।
सब लोग बहुत खुश हुए कि आज हनुमान जी का कर्ज़ा चुकता हो जायेगा।
हनुमान जी ने कहा – प्रभु जो पद आप ने सबको दिए हैं, उनके पद में राजमद हो सकता है, तो मुझे उस तरह के पद नहीं चाहिए, जिसमें राजमद की शंका हो।
राम जी ने पूछा – तो फिर…! आप को कौन सा पद चाहिए ?
हनुमान जी ने राम जी के दोनों चरण पकड़ लिए, प्रभु ..! हनुमान को तो बस यही दो पद चाहिए।
हनुमत सम नहीं कोउ बड़भागी।
नहीं कोउ रामचरण अनुरागी।
जानकी जी की तरफ देखकर मुस्कुराते हुए राम जी बोले, लो उतर गया हनुमानजी का कर्जा! और अभी तक जिसको बोलना था, सब बोल चुके है, अब जो मै बोलता हूं उसे सब सुनो,
रामजी भरत भैया की तरफ देखते हुए बोले-
“हे! भरत भैया’ कपि से उऋण हम नाही”
हम चारों भाई चाहे जितनी बार जन्म ले लें, हनुमानजी से उऋण नहीं हो सकते।
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