हिन्दू संस्कृति विविधताओं से पूर्ण है इसलिए इसमें व्रत-उपवास, तीज-त्यौहार के अनेक मौके भी आते हैं। हिंदू पंचाग के अनुसार पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को विधिनुसार उपवास रखकर भक्त अपनी हर मनोकामना पूर्ण होने की उम्मीद कर सकते हैं। इस उपवास के बाद हर काम में भक्तों को सफलता मिलती है, इसलिए इसे सफला एकादशी व्रत कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जो भक्त एकादशी का व्रत नियमित रूप से रखते हैं उनपर भगवान् श्री नारायण की कृपा सदैव बनी रहती हैं।
सफला शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है सफल होना। अत: जो लोग अपने जीवन में सफलता चाहते हैं, उनके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन करना अत्यधिक लाभकारी होता है। सफला एकादशी का अर्थ सौभाग्य, भाग्य, धन, समृद्धि, सफलता और वृद्धि के द्वार खोलने का संकेत है।
सफला एकादशी का महत्व
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार अर्जुन ने जिज्ञासा से श्री कृष्ण से पूछा – हे मधुसूदन! मैंने पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के बारे में बहुत सुना है, आप कृपा कर मुझे इस के महत्व को विस्तार पूर्वक बताइये।
अर्जुन की इस जिज्ञासा को सुन भगवान कृष्ण बोले- हे धनुर्धर अर्जुन! तुम मुझे अति प्रिय हो इसी प्रेम के कारण में तुम्हें मना नहीं कर पाता। में तुम्हारे इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर देता हूँ। जिस तरह नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरूड़, ग्रहों में सूर्य-चन्द्र, यज्ञों में अश्वमेध और देवताओं में भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ है। पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम ‘सफला’ है। इस एकादशी के आराध्य देव नारायण हैं। इस एकादशी के द्वारा भगवान विष्णु को शीघ्र ही प्रसन्न किया जा सकता है। इस एकादशी के दिन श्रीमन नारायण की विधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक पूजा करनी चाहिए। मनुष्य को पांच सहस्र वर्ष तपस्या करने से जिस पुण्य का फल प्राप्त होता है, वही पुण्य श्रद्धापूर्वक भक्ति भाव से रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी का उपवास करने से मिलता है।
सफला एकादशी की कथा
सफला एकादशी की महत्ता सुन अर्जुन के मन में और जिज्ञासा जाग उठी और उस ने भगवान श्री कृष्ण से कहा – हे कमलनयन! सफला एकादशी का उपवास सभी भक्तों को पुण्य प्रदान करने वाला है आप कृप्या कर इस व्रत की कथा भी मुझे विस्तारपूर्वक बताएं।
हे कुंती पुत्र! अब तुम इस सफला एकादशी की कथा ध्यानपूर्वक सुनो-
प्राचीन समय में चम्पावती नगरी में महिष्मान नामक एक राजा राज्य करता था। उसके चार पुत्र थे। उसका सबसे बड़े पुत्र का नामलुम्पक था। वह महापापी और दुष्ट था, वह हमेशा, पर-स्त्री गमन में तथा वेश्याओं के यहां जाकर अपने पिता का धन व्यय किया करता था। सारी प्रजा उसके कुकर्मों से बहुत दुःखी थी, परंतु युवराज होने के कारण किसी में भी इतना साहस नहीं था कि कोई राजा से उसकी शिकायत करता। एक दिन राजा को लुम्पक के सारे कुकर्मों का पता चल गया। तब राजा अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने अपने पुत्र लुम्पक को अपने राज्य से निकाल दिया। पिता द्वारा त्यागने पर और राज्य से निष्कासित होने पर वह सोचने लगा कि मैं क्या करूं? कहां जाऊं? अंत में उसने रात्रि को पिता के राज्य में चोरी करने की ठानी।
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वह दिन में राज्य से बाहर रहता और रात्रि को चुपके से नगर में प्रवेश कर चोरी तथा अन्य कुकर्म करने लगा। दिन में वे वन के निर्दोष पशु-पक्षियों को मारकर उनका भक्षण किया करता था। किसी-किसी रात जब वह नगर में चोरी आदि करते पकड़ा भी जाता तो राजा के डर से पहरेदार उसे छोड़ देते थे। कहते हैं कि कभी-कभी अनजाने में भी प्राणी ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। ऐसा ही कुछ लुम्पक के साथ भी हुआ। जिस वन में वह रहता था, उस वन में एक प्राचीन पीपल का पेड़ था तथा उस वन को सभी लोग देवताओं का क्रीड़ा-स्थल मानते थे। वन में उसी पीपल के वृक्ष के नीचे महापापी लुम्पक रहता था। कुछ दिन बाद पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन वस्त्रहीन और दुर्बल होने के कारण लुम्पक तेज ठंड से मूर्च्छित हो गया और उसके हाथ-पैर अकड़ गए। सूर्य के उदय होने पर भी उसकी मूर्च्छा नहीं टूटी। वह ज्यों-का-त्यों पड़ा रहा।
जब सूर्य के तपने से उसे कुछ गर्मी मिली, तब दोपहर में कहीं उसे होश आया और वह अपने स्थान से उठकर किसी प्रकार चलते हुए वन में भोजन की खोज में फिरने लगा। उस दिन दुर्बल होने के कारण वह शिकार करने में असमर्थ था, इसलिए पृथ्वी पर गिरे हुए फलों को लेकर पीपल के वृक्ष के नीचे गया। तब तक शाम हो गयी और सूर्यदेव अस्त कर गए थे। भूखा होने के बाद भी वह उन फलों को न खा सका, क्योंकि वह तो मांस खाने का आदि था और उसे फल खाना तनिक भी अच्छा नहीं लगा, अतः उसने उन फलों को पीपल की जड़ के पास रख दिया और दुःखी होकर बोला – ‘हे ईश्वर! यह फल आपको ही अर्पण हैं। इन फलों से आप ही तृप्त हों। ऐसा कहकर वह रोने लगा और रात को उसे नींद नहीं आई। वह सारी रात रोता रहा। इस प्रकार उस पापी से अनजाने में ही एकादशी का उपवास और रात्रि जागरण हो गया। उस महापापी के इस उपवास तथा रात्रि जागरण से भगवान श्रीहरि अत्यंत प्रसन्न हुए और उसके सभी पाप नष्ट हो गए। सुबह होते ही एक दिव्य रथ अनेक सुंदर वस्तुओं से सजा हुआ आया और उसके सामने खड़ा हो गया। उसी समय आकाशवाणी हुई – ‘हे युवराज! भगवान नारायण के प्रभाव से तेरे सभी पाप नष्ट हो गए हैं, अब तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त कर।’
जब यह आकाशवाणी लुम्पक ने सुनी तो वह अत्यंत प्रसन्न होते हुए बोला – ‘हे प्रभु! आप अत्यंत दयालु हो आपकी जय हो!’ ऐसा कहकर उसने सुंदर वस्त्र धारण किए और फिर अपने पिता के पास गया। पिता के पास पहुंचकर उसने सारी कथा पिता को सुनाई। पुत्र के मुख से सारा वृत्तांत सुनने के बाद पिता इसे ईश्वर का आदेश मान कर अपना सारा राज्य उसी समय पुत्र को सौंप दिया और स्वयं वन में चला गया। अब लुम्पक अपने पूर्व आचरण के विपरीत भगवान की भक्ति और शास्त्रानुसार राज्य करने लगा। वृद्धावस्था आने पर वह अपने पुत्र को राज्य सौंपकर भगवान का भजन करने के लिए वन में चला गया और अंत में परम पद को प्राप्त हुए। हे पार्थ! जो मनुष्य श्रद्धा व भक्तिपूर्वक इस सफला एकादशी का उपवास करते हैं, उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में मुक्ति प्राप्त होती है।
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सफला एकादशी व्रत विधि
पद्म पुराण के अनुसार एकादशी व्रत उत्तम फल देने वाला है और सफला एकादशी के दिन भगवान विष्णु और देवी एकादशी की पूजा का विधान है। इस दिन जो भक्त विधि-विधान से व्रत कर पारण करता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते है और उसे जीवन में सफलता प्राप्त होती है।
- सफला एकादशी के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए और व्रत का संकल्प लेना चाहिए।
- इसके बाद धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह सामग्री से षोडशोपचार पूजा करे |
- सफला एकादशी की रात भगवान विष्णु का भजन- कीर्तन करना चाहिए और अपने पापो के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए ।
- सफला एकादशी की रात्रि को जागरण करना चहिये।
- अगली सुबह पुनः भगवान श्रीकृष्ण की पूजा कर ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए।
- भोजन के बाद ब्राह्मण को क्षमता के अनुसार दान दे देकर विदा करना चाहिए। उसके बाद ही अपना व्रत खोलना चाहिए |
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